सीतापुर, (उत्तर प्रदेश)। उत्तर प्रदेश में हर सरकारें शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए बड़े-बड़े दावे करती रही हैं। लेकिन इन सरकारों के पास स्कूल में बच्चों को शिक्षा देने में पूरी जिंदगी लगा देने वाले शिक्षकों को वेतन देने के लिए पैसे कभी नहीं रहे हैं। ऐसा ही मामला सीतापुर जिले में सामने आया है, जहां जूनियर हाईस्कूल में पढ़ा चुके शिक्षक शत्रुहन सिंह 44 वर्ष बाद सेवानिवृत्त हो गए, लेकिन उन्हें कभी वेतन ही नहीं मिला। हालांकि वेतन की आस में वह सहायक बेसिक शिक्षा निदेशक कार्यालय लखनऊ से लेकर परिषद कार्यालय इलाहाबाद तक का चक्कर लगाते रहे, लेकिन उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ। और कुछ समय बाद उनकी मौत हो गयी।
आपको बता दें कि शत्रुहन सिंह सीतापुर के पिसावां के बाजनगर के विश्राम लाल जूनियर हाईस्कूल में 1971 में अंग्रेजी अध्यापक पद पर नियुक्ति हुए थे। इस स्कूल में उन्होंने 44 वर्ष तक बच्चों को लगातार शिक्षा दी, लेकिन इसके बावजूद उन्हें वेतन नहीं मिला। शत्रुहन सिंह जून 2015 में सेवानिवृत्त हो गए और मार्च 2016 में उनकी मृत्यु भी हो गई। शत्रुहन सिंह की तीन संतानें है। जिसमें से उमेश उनके इकलौते बेटे हैं। उमेश का कहना है कि वह अपने पिता के बकाया वेतन को प्राप्त करने के लिए सहायक बेसिक शिक्षा निदेशक कार्यालय लखनऊ से लेकर परिषद कार्यालय इलाहाबाद तक का चक्कर लगा चुके हैं। वह निराश होकर कहते हैं कि अब उन्हें पिता की कमाई मिलने की आस नहीं है, उम्मीद टूट चुकी है। इसलिए वह अपने गांव के बाहर चक्की-पालेशर लगाकर जीवन यापन कर रहे हैं। विद्यालय के प्रधानाध्यापक राजकुमार कहते हैं कि बाजनगर में विश्राम लाल जूनियर हाईस्कूल दिसंबर 2006 को अनुदान की श्रेणी में आ गया था। इसके बावजूद प्रधानाध्यापक जयश्री शुक्ला बिना वेतन के ही 2018 में सेवानिवृत्त हो गईं।
वहीं बीएसए कार्यालय के पटल प्रभारी संजय श्रीवास्तव मुताबिक बिना वेतन शिक्षण कार्य करने वाले शिक्षकों की नियुक्ति की प्रक्रिया अपूर्ण है। इसीलिए इनका वेतन फंसा हुआ है। अब ये मामला कोर्ट व शासन में है, इसलिए उसी स्तर पर कुछ निर्णय हो सकता है। जिले में अनुदानित विद्यालयों की कुल संख्या 85 है। जबकि बीएसए अजय कुमार ने बताया कि अनुदानित जूनियर हाईस्कूलों में बिना वेतन के शिक्षण कार्य करने वाले शिक्षकों के संबंध में शासन ने संज्ञान लिया है। इस मामले में शिक्षा निदेशक ने बैठक भी लगा दी है। उम्मीद है कि इन शिक्षकों का कुछ भला होगा। अब देखना यह है कि अधिकारियों के ये दावे सच होते हैं या फिर शिक्षकों को फिर नाउम्मीदी हाथ लगती है।